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ऐन फ्रैंक के डायरी के पन्ने ॅ

मंगलवार, 13 जून 1944 मेरी प्यारी किट्टी..

मेरा एक और जन्मदिन गुजर गया है। इस हिसाब से मैं पंद्रह बरस की हो गई हूँ। मुझे काफ़ी सारे उपहार मिले हैं- स्प्रिंगर की पाँच खंडों वाली कलात्मक इतिहास पुस्तक, चड्डियों का एक सेट, दो बेल्टें, एक रूमाल, दही के दो कटोरे, जैम की शीशी, शहद वाले दो छोटे बिस्किट, मम्मी-पापा की तरफ़ से वनस्पति विज्ञान की एक किताब मार्गोट की तरफ़ से सोने का एक ब्रेसलेट, वान दान परिवार की तरफ़ से स्टिकर एलबम, डसेल की तरफ़ से बायोमाल्ट और मीठे मटर, मिएप की तरफ से मिठाई, बेप की तरफ़ से मिठाई और लिखने के लिए कॉपियाँ और सबसे बड़ी बात मिस्टर कुगलर की तरफ़ से मारिया तेरेसा नाम की किताब तथा क्रीम से भरे चीज के तीन स्लाइस। पीटर ने पीओनी फूलों का खूबसूरत गुलदस्ता दिया। बेचारे को ये उपहार जुटाने में ही अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ी। लेकिन वह कुछ और जुटा ही नहीं पाया।

बेहद खराब मौसम लगातार बारिश, हवाएँ, और उफा समुद्र के बावजूद हमले शानदार तरीके से जारी हैं। कल चर्चिल, स्मट्स, आइजनहावर तथा आर्मोल्ड उन फ्रांसीसी गाँवों में गए जिन पर ब्रिटिश सैनिकों ने पहले कब्जा कर लिया था और बाद में मुक्त कर दिया। चर्चिल एक टॉरपीडो नाव में थे। इससे तटों पर गोलाबारी की जाती है। बहुत से लोगों की तरह चर्चिल को भी पता नहीं है-उ - डर किस चिड़िया का नाम है।

जन्मजात बहादुर । यहाँ हमारी एनेक्सी की किलेबंदी से डच लोगों के मूड की थाह पाना बहुत मुश्किल है। इस बात में कोई शक नहीं कि लोगबाग बैठे ठाले भी खुश रह लेते हैं। ब्रिटिश सैनिकों ने आखिर अपनी कमर कस ही ली है और अपने मकसद को पूरा करने के लिए निकल पड़े हैं। जो लोग ये दावे करते फिर रहे हैं कि वे ब्रिटिश द्वारा कब्जा किए जाने के पक्ष में नहीं हैं, नहीं जानते कि वे कितनी गलती पर हैं। उनके तर्क का कारण इतना भर है- ब्रिटिश को लड़ते रहना चाहिए, संघर्ष करना चाहिए, और हॉलैंड  को आजाद कराने के लिए अपने शूरवीर सैनिकों की शहादत के लिए आगे आना चाहिए। हॉलैंड के साथ-साथ कब्जे वाले दूसरे देशों को भी आजाद कराना चाहिए, लेकिन उसके बाद ब्रिटिश को हॉलैंड में रुकना नहीं चाहिए। इसके बजाय उन्हें चाहिए कि वे सभी कब्जे वाले देशों से हाथ जोड़-जोड़कर माफ़ी माँगें, डच ईस्ट इंडीज़ को उसके सही हकदारों के हाथों में सौंपे और थके टूटे, हारे और लुटे पिटे अपने देश ब्रिटेन में लौट जाएँ। मूर्खों की कहीं कोई कमी नहीं है। इसके बावजूद, जैसा कि मैंने कहा कुछेक समझदार डच लोगों की भी कमी नहीं है। अगर ब्रिटिश ने जर्मनी के साथ शांति संधि पर हस्ताक्षर कर लिए होते तो हॉलैंड और उसके पड़ोसी देशों का क्या हाल हुआ होता। उसके पास ऐसा करने के बहुत मौके मौजूद थे। हॉलैंड जर्मनी बन चुका होता और तब... यह होना ही समाप्ति का संकेत होता । सब कुछ खत्म हो जाने का संकेत।

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ऐसे सभी डच लोग, जो अभी भी ब्रिटिश को हिकारत से देखते हैं, ब्रिटेन की खिल्ली उड़ाते हैं, उसके बुढ़ाते लॉर्डों की सरकार को ताने मारते हैं, उन्हें कायर कहते हैं, इसके बावजूद जर्मनों से नफ़रत करते हैं, एक अच्छा-खासा सबक सिखाने के लायक हैं। उनकी जमकर मरम्मत की जानी चाहिए तभी हमारे जंग लगे दिमाग खुलेंगे। उनमें जोश आएगा।

मेरे दिमाग में हर समय इच्छाएँ, विचार, आरोप तथा डाँट फटकार ही चक्कर खाते रहते हैं। मैं सचमुच उतनी घमंडी नहीं हूँ जितना लोग मुझे समझते हैं। मैं किसी और की तुलना में अपनी कई कमजोरियों और खामियों को बेहतर तरीके से जानती हूँ। लेकिन एक फ़र्क है- मैं जानती हूँ कि मैं खुद को बदलना चाहती हूँ, बदलूंगी और काफ़ी हद तक बदल चुकी हूँ।

तब ऐसा क्यों है, मैं अपने आप से यह सवाल पूछती हूँ कि लोग मुझे अभी भी इतना नाक घुसेडू और अपने आपको तीसमारखाँ समझने वाली क्यों मानते हैं? क्या मैं वाकई अक्खड़ हूँ? क्या मैं ही अकेली अक्खड़ हूँ या वे सब ही हैं? यह सब वाहियात लगता है, मुझे पता है। लेकिन मैं ऊपर लिखा ये आखिरी वाक्य काटने वाली नहीं। ये वाक्य इतना मूर्खतापूर्ण नहीं है जितना लगता है। मुझ पर हमेशा आरोपों की बौछार करते रहने वाले दो लोग हैं मिसेज़ वान दान और डसेल उनके बारे में सबको पता है कि वे कितने जड़बुद्धि हैं। मूर्ख जिसके आगे कोई विशेषण लगाने की जरूरत नहीं। मूर्ख लोग आमतौर पर इस बात को सहन नहीं कर पाते कि कोई उनसे बेहतर काम करके दिखाए। और इसका सबसे बढ़िया उदाहरण ये दो जड़मति, मिसेज वान दान और मूर्खाधिराज डसेल हैं। मिसेज वान दान मुझे इसलिए मूर्ख समझती हैं क्योंकि मैं उनके जितनी बीमारियों की शिकार नहीं हूँ। वे मुझे अक्खड़ समझती हैं क्योंकि वे मुझसे भी ज्यादा अक्खड़ हैं। वे समझती हैं कि मेरी पोशाकें छोटी पड़ गई हैं, क्योंकि उनकी पोशाकें और भी ज्यादा छोटी पड़ गई हैं। और वे समझती हैं कि मैं अपने आपको कुछ ज्यादा ही तीसमारखाँ समझती हूँ क्योंकि वे उन विषयों पर मुझसे भी दो गुना ज्यादा बोलती हैं जिनके बारे में वे खाक भी नहीं

जानतीं। यह बात डसेल पर भी फिट होती है। लेकिन मेरी प्रिय कहावत है- 'जहाँ आग होगी, धुआँ भी वहीं होगा। और मुझे यह मानने में रत्ती भर भी संकोच नहीं हैं कि मैं सब कुछ जानती हूँ। मेरे व्यक्तित्व के साथ सबसे मुश्किल बात यह है कि मैं किसी भी और व्यक्ति की तुलना में अपने आपको सबसे धिक्कारती हूँ, यदि माँ अपनी सलाहें देना शुरू कर देती हैं तो उनके उपदेशों की पोटली इतनी भारी हो जाती है कि मुझे डर लगने लगता है- कैसे होगी इससे मुक्ति ! जब तक ऐन का वही पुराना रूप सामने नहीं आ जाता- 'मुझे कोई नहीं समझता। "

यह वाक्य मेरा हिस्सा है। बेशक लगे कि ऐसा नहीं होगा, फिर भी इसमें थोड़े से सच का अंश है। कई बार तो मैं अपने आपको प्रताड़ित करते हुए इतनी गहरे उतर जाती हूँ कि सांत्वना के दो बोल सुनने के लिए तरस जाती हूँ कि कोई आए और मुझे इससे उबारे। काश, कोई तो होता जो मेरी भावनाओं को गंभीरता से समझ पाता। अफ़सोस, ऐसा व्यक्ति मुझे अब तक नहीं मिला है, इसलिए

तलाश जारी रहेगी। मुझे पता है, तुम पीटर के बारे में सोचकर हैरान हो रही हो । नहीं क्या, किट्टी? मैं मानती हूँ कि यह सच है कि पीटर मुझे प्यार करता है, गर्लफ्रेंड की तरह नहीं बल्कि एक दोस्त की तरह। उसका स्नेह दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है; लेकिन कई बार कोई रहस्यमयी ताकत हम दोनों को पीछे की तरफ खींचती है। मैं

नहीं जानती कि वो कौन-सी शक्ति है।

कई बार मैं सोचती हूँ कि मैं उसके पीछे जिस तरह प्रेमदीवानी बनी रहती हूँ, उसे बढ़ा-चढ़ाकर बता रही हूँ, लेकिन यह सच नहीं है। इसका कारण यह है कि अगर मैं उसके कमरे में एक-दो दिन के लिए न जा पाऊँ तो मेरी बुरी हालत हो जाती है। मैं उसके लिए तड़पने लगती हूँ। पीटर अच्छा और भला लड़का हैं; लेकिन उसने मुझे कई तरह से निराश किया है। धर्म के प्रति उसकी नफ़रत, खाने के बारे में उसका बातें करना और इस तरह की और कई बातें मैं बिलकुल भी पसंद नहीं करती। इसके बावजूद मुझे पक्का यकीन हैं कि हमने जो वायदा किया है कि कभी झगड़ेंगे नहीं, हम उस पर हमेशा टिके रहेंगे। पीटर शांतिप्रिय, सहनशील और बेहद सहज आत्मीय व्यक्ति है। वह मुझे कई ऐसी बातें भी कह लेने देता है जिन्हें कहने की वह अपनी मम्मी को भी इजाजत न देता। वह दृढ़ निश्चयी होकर इस मुहिम पर जुटा हुआ है कि वह अपने पर लगे हुए सभी इल्ज़ामों से अपने आपको पाक-साफ़ करे और अपने काम-काज में सलीका लाए। इसके बावजूद वह अपने भीतरी 'स्व' को मुझसे छुपाता क्यों है और मुझे कभी भी इस बात की अनुमति नहीं देता कि मैं उसमें झाँकूँ। निश्चय ही वह मेरी तुलना में ज्यादा घुन्ना है, लेकिन मैं अनुभव से जानती हूँ ( हालाँकि मुझ पर लगातार यह आरोप लगाया जाता है कि जो कुछ भी जानना चाहिए वह मैं थ्योरी में जानती हूँ, व्यवहार में नहीं) कि कई बार ऐसे घुन्ने लोग भी, जिनसे संवाद कर पाना बहुत मुश्किल होता है, अपनी बात किसी से कह पाने की उत्कट चाह लिए होते हैं।

पीटर और मैंने दोनों ने अपने चिंतनशील बरस एनेक्सी में ही बिताए हैं। हम अकसर भविष्य, वर्तमान और अतीत की बातें करते हैं, लेकिन जैसा कि मैं तुम्हें बता चुकी हूँ, मैं असली चीज़ की कमी महसूस करती हूँ और जानती हूँ कि वह मौजूद है। क्या इसका कारण यह है कि मैं अरसे से बाहर नहीं निकली हूँ और प्रकृति के लिए

पागल हुई जा रही हूँ। मैं उस वक्त को याद करती हूँ जब नीला आसमान, पक्षियों की चहचहाने की आवाज़, चाँदनी और खिलती कलियाँ, इन चीजों ने मुझे कभी भी अपने जादू से बाँधा न होता मेरे यहाँ आने के बाद चीजें बदल गई हैं। उदाहरण के लिए छुट्टियों के दौरान की बात है। बेहद गरमी थी। मैं रात के साढ़े ग्यारह बजे तक जबरदस्ती आँखें खोले बैठी रही ताकि मैं अपने अकेले के बूते पर अच्छी तरह चाँद को देख सकूँ। अफ़सोस, मेरी सारी मेहनत बेकार गई। चौंध इतनी ज्यादा थी कि खिड़की खोलने का जोखिम नहीं लिया जा सकता था। कई महीने बाद एक और मौका ऐसा आया था। उस रात मैं ऊपर वाली मंजिल पर थी। खिड़की खुली हुई थी। जब तक खिड़की बंद करने का वक्त नहीं हो गया, मैं वहीं बैठी रही। यह गहरी साँवली बरसात की रात थी। तेज हवाएँ चल रही थीं। बादलों के बीच लुकाछिपी चल रही थी। इस सारे नजारे ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया था। पिछले डेढ़ बरस में यह पहली बार हो रहा था कि मैं आमने-सामने रात से साक्षात्कार कर रही थी। उस शाम के बाद प्रकृति से साक्षात्कार करने की मेरी चाह लगातार बढ़ती गई थी। तब मुझे चोर उचक्कों, मोटे काले चूहे या पुलिस के छापे का भी डर नहीं रहा था। मैं अकेले ही नीचे चली गई थी और रसोई तथा प्राइवेट ऑफ़िस की खिड़की से प्रकृति के नजारे देखती रही थी। कई लोग सोचते हैं कि प्रकृति सुंदर होती है, कई लोग समय-समय पर तारों भरे आसमान के तले सोते हैं, और कई लोग अस्पतालों और जेलों में उस दिन की राह देखते  रहते हैं कि वे कब आजाद होंगे और वे फिर से प्रकृति के इस

अनूठे उपहार का आनंद ले पाएँगे। प्रकृति गरीब-अमीर के बीच

कोई भेदभाव नहीं करती।

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यह मेरी कल्पना मात्र नहीं है-आसमान, बादलों, चाँद और तारों की तरफ़ देखना मुझे शांति और आशा की भावना से सराबोर कर देता है। यह वेलेरियन या ब्रोमाइड की तुलना में आजमाया हुआ बेहतर नुस्खा है। शांति पाने की रामबाण दवा । प्रकृति मुझे विनम्रता का उपहार देती हैं और इससे मैं बड़े से बड़ा धक्का भी हिम्मत के साथ झेल जाती हूँ। लेकिन किस्मत का लिखा यही है कुछेक दुर्लभ अवसरों को छोड़कर मैं मैल से चीकट हुई खिड़कियों में खुसे गंदे परदों में से प्रकृति को बहुत ही कम निहार पाती हूँ। इस तरह से देखने से आनंद लेने की सारी भावना ही मर जाती है। प्रकृति ही तो एक ऐसा वरदान है जिसका कोई सानी नहीं।

कई प्रश्नों में से एक प्रश्न जो मुझे अक्सर परेशान करता रहता है और अभी भी समझा जाता है यह कह देना बहुत ही आसान है कि ये गलत है, लेकिन मेरे लिए इतना ही काफ़ी नहीं है। मैं इस विराट अन्याय के कारण जानना चाहती हूँ। संभवत: पुरुषों ने औरतों पर शुरू से ही इस आधार पर शासन

करना शुरू किया कि वे उनकी तुलना में शारीरिक रूप से ज्यादा सक्षम हैं; पुरुष ही कमाकर लाता है; बच्चे पालता पोसता है; और जो मन में आए, करता है, लेकिन हाल ही में स्थिति बदली है। औरतें अब तक इन सबको सहती चली आ रही थीं, जो कि बेवकूफ़ी ही थी। चूँकि इस प्रथा को जितना अधिक जारी रखा गया, यह उतनी ही गहराई से अपनी जड़ें जमाती चली गई। सौभाग्य से, शिक्षा, काम तथा प्रगति ने औरतों की आँखें खोली हैं। कई देशों में तो उन्हें बराबरी का हक दिया जाने लगा है। कई लोगों ने कई औरतों ने और कुछेक पुरुषों ने भी अब इस बात को महसूस किया हैं कि इतने लंबे अरसे तक इस तरह की वाहियात स्थिति को झेलते जाना गलत ही था। आधुनिक महिलाएँ पूरी तरह स्वतंत्र होने का हक चाहती हैं।

लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं है। महिलाओं का भी पूरा सम्मान किया जाना चाहिए। आमतौर पर देखा जाए तो पूरी दुनिया में पुरुष वर्ग को पूरा सम्मान मिलता है तो महिलाओं ने ही क्या कुसूर किया है कि वे इससे वंचित रहें और उन्हें अपने हिस्से का सम्मान न मिले। सैनिकों और युद्धों के वीरों का सम्मान किया जाता है, उन्हें अलंकृत किया जाता है, उन्हें अमर बना डालने तक का शौर्य प्रदान किया जाता है, शहीदों को पूजा भी जाता है, लेकिन कितने लोग ऐसे हैं जो औरतों को भी सैनिक का दर्जा देते हैं?

'मौत के खिलाफ़ मनुष्य' नाम की किताब में मैंने पढ़ा था कि आमतौर पर युद्ध में लड़ने वाले वीर को जितनी तकलीफ़, पीड़ा, बीमारी और यंत्रणा से गुजरना पड़ता है, उससे कहीं अधिक तकलीफें औरतें बच्चे को जन्म देते समय झेलती हैं और इन सारी तकलीफ़ों से गुज़रने के बाद उसे पुरस्कार क्या मिलता है? जब बच्चा जनने के बाद उसका शरीर अपना आकर्षण खो देता है तो उसे एक तरफ़ धकिया दिया जाता है, उसके बच्चे उसे छोड़ देते हैं और उसका सौंदर्य उससे विदा ले लेता है। औरत ही तो है जो मानव जाति की निरंतरता को बनाए रखने के लिए इतनी तकलीफ़ों से गुजरती है और संघर्ष करती है, बहुत अधिक मजबूत और बहादुर सिपाहियों से भी ज्यादा मेहनत करके खटती है। वह जितना संघर्ष करती है, उतना तो बड़ी-बड़ी डींगे हाँकनेवाले ये सारे सिपाही मिलकर भी नहीं करते।

मेरा ये कहने का कतई मतलब नहीं है कि औरतों को बच्चे जनना बंद कर देना चाहिए, इसके विपरीत प्रकृति चाहती है कि वे ऐसा करें और इस वजह से उन्हें यह काम करते रहना चाहिए। मैं जिस चीज की भर्त्सना करती हूँ वह है हमारे मूल्यों की प्रथा और ऐसे व्यक्तियों की मैं भर्त्सना करती हूँ जो यह बात मानने को तैयार ही नहीं होते कि समाज में औरतों, खूबसूरत और सौंदर्यमयी औरतों का योगदान कितना महान और मुश्किल है। मैं इस पुस्तक के लेखक श्री पोल दे क्रुइफ जी से पूरी तरह सहमत हूँ जब वे कहते

हैं कि पुरुषों को यह बात सीखनी ही चाहिए कि संसार के जिन हिस्सों को हम सभ्य कहते

हैं- वहाँ जन्म अनिवार्य और टाला न जा सकने वाला काम नहीं रह गया है। आदमियों के

लिए बात करना बहुत आसान होता है उन्हें औरतों द्वारा झेली जाने वाली तकलीफ़ों से कभी

भी गुजरना नहीं पड़ेगा।

मेरा विश्वास है कि अगली सदी आने तक यह मान्यता बदल चुकी होगी कि बच्चे पैदा करना ही औरतों का काम है। औरतें ज्यादा सम्मान और सराहना की हकदार बनेंगी। वे सब औरतें जो एक उफ़ भी किए बिना, यह लंबे-चौड़े बखानों के बिना ये तकलीफ़े सहती हैं।

तुम्हारी ऐन. एम. फ्रैंक

अनुवाद: सूरजप्रकाश

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